जरायमपेशा की बेटियां

Popatram: Sushobhit:

एक बार यूं हुआ कि एक जरायमपेशा के घर खाना खाने का मुझको अवसर मिला!

यों उनसे मेरी सीधी पहचान न थी। ये और बात है कि जो मित्र मुझे उनके यहां ले गए थे, वे ख़ुद कोई कमख़ुदा न थे। दरअस्ल उन दोनों की तो नामी-गिरामी जोड़ी थी, जैसे रंगा और बिल्ला! कहा जाता कि ये दोनों अगर एक साथ निकल जाएं तो पंद्रह मिनट में पूरा फ्रीगंज बंद करवा दें (उज्जैन में नए शहर का इलाक़ा फ्रीगंज कहलाता है, अलबत्ता वहां फोकट कुछ नहीं मिलता)।

किंतु कालांतर में यों हुआ कि एक जरायमपेशा ने ग़ुंडागर्दी से तौबा कर ली और दूसरे ने अपना काम जारी रखा। जिन्होंने गुंडई से तौबा की वे ख़बरनवीस बन गए। अख़बार में नौकरी करने लगे। अपराध की दुनिया की बारीक़ से बारीक़ जानकारी होने और हवलदार-बहादुरों से आए दिनों की दुआ-सलाम के चलते उनको उसी अख़बार में क्राइम रिपोर्टिंग की ज़िम्मेदारी सौंपी गई, जिसमें मैं एक सिटी रिपोर्टर की हैसियत से रोज़मर्रा के इवेंट, प्रेस कॉन्फ्रेंस, कल्चरल एक्टिविटीज़ वग़ैरा कवर किया करता था और मेरे पास जो इकलौती अहम बीट थी, यानी उज्जैन विकास प्राधिकरण, उसमें से भी मैं गुमी हुई फ़ाइलों की सनसनीख़ेज़ ख़बरें कम और नवनिर्माण के सुनहले अध्याय लेकर ही दफ़्तर पहुंचा करता था। ये कोई 2005-06 का अफ़साना होगा।

साथ काम करते-करते चाय-सुपारी का रिश्ता जुड़ ही जाता है। देखते-देखते दांतकटी हो जाती है। तो भूतपूर्व जरायमपेशा से भी अपनी पटरी बैठ गई। तमाम तरह के अपराध वे कर चुके थे और कुछ मर्तबा जेल के निवाले तोड़ चुके थे। किंतु अभी तौबा करके शरीफ़ हो चुके थे और ख़बरें लाना ही उनका पेशा था। ख़बरों की उनके पास यों क़िल्लत न थी, किंतु मुसीबत ये कि उनको लिखना नहीं आता था। और मैं था क़लम का हुनरमंद। तब वो मुझको वैताल की तरह लाद लेते। बड़नगर के आगे तालाब फूटता तो उनके साथ जाता। चिमनगंज मंडी में कंजरों से बंदूक़ों का ज़ख़ीरा बरामद होता तो मैं साथ हाज़िर। सट्‌टा-पर्ची पर स्टोरी लिखना हो तो मैं ही मददगार। फूटे तालाब का रेखाचित्र बनाकर लाया, जूते के तल्ले से निकालते कीच और घास। बरामद बंदूक़ों की बारीक़ तफ़सीलें कि कहां पर खटका, कहां पर घोड़ा। सट्‌टा-पर्चियों पर क़रारी स्टोरी उनको लिखकर दी। वो गदगद। फ्रंट पेज की बॉटम उनको मिलती वो भी बायलाइन। इधर मैं इसी से ख़ुश कि चलो दुनिया के नए-नए रंग-रूप देखने को मिल रहे, जो कालिदास संस्कृत अकादमी में कभी देखने को ना मिलते।

एक दिन वो बोले, चलो आज तुमको अपने ख़ास यार से मिलाकर लाता हूं। जैसा मैं पहले था, वैसा ही वो आज भी है। मैंने कहा, चलो। इस तरह हम चले, एक फटफटी पर दो सवार।

उर्दूपुरे में दो मंज़िल का मकान। दूसरे तल पर तीन कमरों का घर। ईंट-गारे की चिनाई और उस पर नीले रंग का चूना। हरे तैलरंग वाली गेहूं की लोहे की कोठी पर ओनिडा की टीवी, जिस पर प्लास्टिक के फूलों वाले गुलदस्ते। गहरे रंगों वाले मैले परदे, हर आहट पर लहराते। भारत-देश के करोड़ों परिवार जैसे घरों में रहते हैं, वैसा ही एक मध्यवर्गी ख़ुशबू से भरा घर।

घर में भोज था। ख़ुशी का मौक़ा था। जरायमपेशा की जुड़वा बेटियों की सालगिरह थी। साग, पूरी के साथ मीठे चावल पकाए गए थे, जिसमें इलायची और लौंग। उसी रसोई में उस दिन अपनी दावत थी। यों अपन अलग से न्योते नहीं गए थे, लेकिन जरायमपेशा के जिगरी यार के साथ थे, तो उस दिन के सबसे ख़ास मेहमान हम ही समझे गए।

केक तो नहीं कटा, लेकिन फुग्गे ज़रूर फुलाकर चिपकाए गए। कटोरियां भर-भरके केसरिया भात। पांचेक साल की परियों जैसी दो लड़कियां मेरी आंखों के सामने थीं। एक का नाम करिश्मा, दूसरी का रवीना। सफ़ेद रंग की फ्रॉक पहने, लाल रंग का रिबन बांधे वे चिड़ियों की तरह एक कमरे से दूसरे में फुदक रही थीं। उनकी मां गदगद होकर अतिथि सत्कार कर रही थी। झुक-झुककर पूरियां परोसतीं।

रोज़ वो ये सोचते सोती होगी कि आज इनके पापा घर लौटेंगे या नहीं। किंतु लड़कियों के पापा अभी घर में बाक़ायदा मौजूद। मेहमानों में मसरूफ़। आने वालों को नमस्ते करते। जाने वालों को गली के मुहाने तक छोड़कर आते। ज़िद करके क़िमाम वाला पान खिलाते।

दरांता मारते जिस चेहरे पर शिक़न न आए, मैंने उस दिन उस चेहरे पर देखी एक सजल-विनय!

सिर झुकाकर खाना खाता रहा। देरी तक कुछ सोचता रहा। दोनों लड़कियों को देखता, उनकी मां, फिर उनके पिता को। जिस दिन बेटियां ब्याहेंगी, उस दिन यही पिता फिर कैसे हाथ जोड़ेंगे, कैसे करेंगे सत्कार? मोहल्ले में आज जिनकी तूती बोलती, वैसे दादा-पहलवान उस दिन कितना नमेंगे! मैंने ग़ौर से देखा कि जिस आत्मा में इस्पात भरा हो, उसमें कपास भी कुछ कम नहीं होता!

मुझको चन्द्रकान्त देवताले की एक कविता याद आई-

“पपीते के पेड़ की तरह मेरी पत्नी
मैं पिता हूँ दो चिड़ियाओं का
जो चोंच में धान के कनके दबाए
पपीते की गोद में बैठी हैं

सिर्फ़ बेटियों का पिता होने से
कितनी हया भर जाती है शब्दों में!”

जो बारूद से खेलते हैं, उनके घर बेटियां जन्में तो क्या हाथ ना कांपेंगे?

जो छुरियां चलाते हैं, गोलियां बरसाते हैं, वे एकबारगी ठहरकर सोचने ना लगेंगे?

मैं देखता रहा उस सुखी परिवार को, उत्सव की उस संध्या, चुपचाप तोड़ते पूरियों के कौर। मांगता रहा मन ही मन ये दुआ कि जिसके मन में रहम न हो, ऐ ख़ुदा, कुछ यों कर कि पसीजे उसका दिल। उसके घर में बेटियां अता कर, उसको थोड़ा ज़्यादा आदमी बना!

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